एक समय था जब इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को घर से बाहर निकलने की भी आज़ादी नहीं थी। उन्हें यह एहसास कराया गया था कि वे पुरुषों से कमजोर हैं और उनकी बराबरी नहीं कर सकतीं। उनके मन में भरा गया कि उनके पास पुरुषों के अपेक्षा कम दिमाग है, इसलिए पुरुषों द्वारा बनाए गये नियम-कानूनों में उन्हें बंध कर रहना है और पुरुषों के दिमाग से ही उन्हें चलना है। पुरुषों ने महिलाओं की आज़ादी को हमेशा अपनी इज्ज़त से जोड़कर रखा और चाहरदीवारी से निकलने पर उन्हें चरित्रहीन की संज्ञा दी।
हालांकि स्त्रियों के मन में ऐसी बातें भरने में स्वयं महिलाएं भी पीछे नहीं थीं। संकीर्ण मानसिकता वाली कुछ महिलाओं ने स्वयं भी स्त्रियों को पुरुषों से कमतर आंका और मान-मर्यादा के नाम पर उनपर अत्याचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। आज़ादी की चाह रखने वाली महिलाओं ने हमेशा ही इसके विरूद्ध संघर्ष किया और अपनी शक्ति को पहचानते हुए आगे बढ़ी।
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सन् 1908 ई. में यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने पहली बार बड़े पैमाने पर महिलाओं को चहारदीवारी और रसोई से बाहर निकालकर कारखानों तक लाया। परन्तु समान काम के लिए उन्हें पुरुषों से आधा वेतन दिया गया। राष्ट्रहित की चाह रखने वाले कुछ पुरुषों एवं महिलाओं द्वारा लंबे समय तक संघर्ष और प्रदर्शन करके महिलाओं को मुख्य धारा में लाने का सफल प्रयास किया गया। आज हर क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं। विश्व के अधिसंख्य देशों में महिलाएँ आशातीत प्रगति कर रही हैं। अपने मेहनत एवं संघर्षों के बल पर महिलाएँ लगातार आसमान छू रही हैं।
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देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित मणिपुर के गरीब घर में जन्मी मेरीकॉम हो या पहली बार रूसी किंग हवाई जहाज उड़ाने वाली अलीगढ़ में जन्मी सुमन शर्मा हो, देश के सबसे बड़े व प्रमुख भारतीय स्टेट बैंक की चेयरपर्सन अरुंधति भट्टाचार्य हो (इस पद पर पहुँचने वाली प्रथम महिला) या पुरुष प्रधान बैंकिंग क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वाली चंदा कोचर हो (निजी क्षेत्र के भारत के दिग्गज बैंक आईसीआईसीआई की एमडी और सीईओ, बैंकिंग क्षेत्र में शानदार योगदान के लिए पद्म विभूषण से सम्मानित), सायना नेहवाल हो या संतोष यादव ऐसी हज़ारों महिलाएँ हैं जिन्होंने अपने कार्यों से राष्ट्र को गौरवान्वित किया और राष्ट्र निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आज महिलाएँ लेखन में भी आगे आ रही हैं एवं स्त्री-प्रधान रचनाएँ लिखकर अन्य महिलाओं को जागरूक कर रही हैं।
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स्त्रियां पारिवारिक व्यवसाय में मदद करके भी राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि पढ़ी-लिखी महिलाओं ने राष्ट्र निर्माण में अपना जितना योगदान दिया, गाँवों की अनपढ़ महिलाएं भी वर्षों से इसमें उतनी ही भूमिका निभा रही हैं। चिलचिलाती धूप में धान रोपती और बादाम (मूंगफली) उखाड़ती असंख्य महिलाएँ, तीन-चार घंटे मेहनत के बाद माथे पर घास का बड़ा-सा बोझ लेकर घर लौटती महिलाएँ, सब्जी मंडी में अपनी सब्जी बेचने के लिए आवाज़ लगाती महिलाएँ, मकान या सड़क बनते समय माथे पर ईंट, बालू, पत्थर उठाती महिलाएँ, चौराहे पर छोटे-से फुस की दुकान में चाय बनाकर लोगों को पिलाती महिलाएँ सहसा ही खींचेंगी आपका ध्यान अपनी ओर, ...और आप झुठला नहीं पाएँगे राष्ट्र निर्माण में इन महिलाओं के योगदान को!
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इस सदी में भी महिलाओं पर दिन-प्रतिदिन अत्याचार हो रहे हैं। हालांकि महिलाएँ इन सब के विरोध में डटकर आवाज़ उठा रही हैं और सरकार भी महिलाओं के समर्थन में उनके साथ खड़ी है। आज लड़कियाँ एवं महिलाएँ पितृसत्तात्मक समाज में रूढ़िवादी सोच को तोड़कर अपनी शक्ति को पहचानते हुए, चरित्रहीन होने का दाग लगने की परवाह न करते हुए प्रबल गति से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं। यह किसी क्षेत्र के लिए, राष्ट्र के लिए, विश्व के लिए एवं सम्पूर्ण मानव जाति के लिए शुभ संकेत है।
दीपांकर दीप |
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